आत्मबल के लिए
एक गरीब बुढ़िया थी। अपनी झोपड़ी में अकेली रहती थी। उसके पास एक गाय थी। बस उसी के सहारे वह अपना जीवन निर्वाह करती थी। पर्युषण पर्व चल रहा था। वह अपनी झोपड़ी में बैठी-बैठी रोज देखती थी कि गांव के लोग बहुत ठाट-बाट से पूजा की थाल और प्रसाद आदि लेकर लिए मंदिर जा रहे हैं। उन्हें देख कर बुढ़िया सोचती थी, मैं इतनी ठाट से पूजा नहीं कर सकती, मेरे पास पर्याप्त साधन नहीं है। पूजा की इच्छा दब जाती। एक दिन उसने सोचा, यदि पूजा नहीं कर सकती तो आरती तो कर सकती हूं। बस, यह सोच कर वह उठी, अपनी गाय के दूध से निकाला हुआ घी लिया। पड़ोसी के एक कपास के खेत में से थोड़ी-सी रूई ले आई।
एक मिट्टी के दीपक में आरती संजोकर चल दी मंदिर की ओर। अत्यंत श्रद्धा भक्ति से उसने आरती की, जिसके परिणाम स्वरूप आगामी भव में उसे अत्यंत ज्ञानी मुनिराज की पर्याय प्राप्त हुई। न कोई उपवास, न कोई व्रत, केवल पवित्र भावना, श्रद्धा और भक्ति से उसे यह प्राप्त हुआ। किसी शक्तिहीन व्रती प्राणी का उपहास मत कीजिए। संभव है, उसमें शक्ति की अल्पता हो पर भक्ति की प्रबलता हो। कोई छोटा बच्चा पवित्र भावना लेकर व्रत करना चाहता है, तो उसे रोकिए मत, करने दीजिए। उसकी भावनाओं को खंडित मत कीजिए, ठेस मत पहुंचाइए। बल्कि उसे व्रत के वास्तविक उद्देश्य को समझा कर उसके इरादे को और दृढ़ बनाइए। तप के मार्ग को सामान्य मत समझिए।
कुछ लोग कहते हैं, तप में क्या रखा है? बेकार है? व्यर्थ है। ऐसा वे लोग कहते हैं जिनमें पुरुषार्थ का अभाव है। जो स्वयं पालन नहीं कर सके, उन्हें कहना चाहिए हम तो नहीं कर पाते, पर आप कर रहे हैं, यह अच्छी बात है। आपका कल्याण हो। उसके प्रति कम से कम अपनी भावनाएं पवित्र रखनी चाहिए। तप की सबसे बड़ी पूंजी आत्मशक्ति की उत्पत्ति है। इस आत्मशक्ति के माध्यम से हमारे में विरोध में भी जीने का साहस उत्पन्न होता है।